Title
उपभोक्तावाद, आर्थिक विकास एक सामाजिक समस्या
Abstract
उपभोक्ता मनुष्य की एक प्राथमिक आवष्यकता रही है। जो मनुष्य अपने जीवन-यापन के लिए कुछ वस्तुओं का उपभोग करता है, उसी को उपभोक्ता कहा जाता है। आरम्भ से ही सभी तरह के समाजों में व्यक्ति की अनिवार्य आवष्यकता है, वही उपभोक्तावाद आर्थिक विकास से उत्पन्न होने वाली एक सामाजिक समस्या है जो वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक-आर्थिक जीवन में नये तनावों को जन्म दे रही है। समाजषास्त्र और अर्थषास्त्र में उपभोग और उपभोक्ता का अर्थ एक-दूसरे से भिन्न है। आर्थिक संदर्भ में उपभोग का तात्पर्य उस आर्थिक क्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति कुछ वस्तुओं या धन के बदले में जीवन-निर्वाह की वस्तुएँ प्राप्त करके उन्हें उपयोग में लाता है। इस तरह की आर्थिक क्रिया करने वाले व्यक्ति को ही उपभोक्ता कहा जाता है। समाजषास्त्रीय अर्थ पदार्थों का तात्पर्य सामाजिक मूल्यों और सांस्कृतिक विषेषताओं के अनुसार कुछ विषेष वस्तुओं अथवा पदार्थों का उपयोग करने की प्रवृति से है। इसका तात्पर्य है कि जैसे-जैसे एक विषेष समाज की संस्कृति और सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन होता है, उपभोग की प्रकृति में भी परिवर्तन होने लगता है। सभ्यता के आरम्भिक स्तर पर लोग जंगली पषुओं को मारकर और उनके कच्चे मांस को खाकर उपभोग की आवष्यकता को पूरा कर लेते थे। इसके लिए किसी वस्तु या धन का भुगतान करने की आवष्यकता नहीं थी। कृषि युग की आरम्भिक अवस्था में भी उपभोग और उपभोक्ता का सम्बन्ध किसी तरह की बाजार व्यवस्था से नहीं था। व्यक्ति अपने गाँव या कबीले में ही अपनी आवष्यकता की वस्तुओं की अदला-बदली करके उपभोग की जरूरतों को पूरा कर लेते थे। कृषि अर्थव्यवस्था के बाद औद्योगिक अर्थव्यवस्था आरम्भ हुई तो बड़ी मात्रा का उत्पादन बढ़ने के साथ वस्तुओं की ब्रिकी के लिए संगठित बाजारों की स्थापना होने लगी। इस समय प्रतियोगिता आर्थिक क्रियाओं का मुख्य आधार बन गयी। आर्थिक प्रतियोगिता में सफल होने के लिए उत्पादकों द्वारा बहुत-सी ऐसी वस्तुओं का उत्पादन किया जाने लगा जो लोगों के दैनिक जीवन की कठिनाईयों को कम करके उनकी उपभोग सम्बन्धी मनोवृŸिायों को बदलने लगी। इन बदलती हुई मनोवृŸिायों के फलस्वरूप समाज के एक बड़े वर्ग ने उन वस्तुओं का उपभोग करना आरम्भ कर दिया जिनके लिए उसके पास साधनों की कमी थी। स्पष्ट है कि आर्थिक विकास के फलस्वरूप समाज में एक ऐसी समस्या उत्पन्न हो गयी जिसके अन्तर्गत व्यक्ति में उन वस्तुओं के उपभोग की इच्छा और प्रवृति बढ़ने लगी जिसकी संतुष्टि करना उपलब्ध साधनों के बाहर था। सामान्य शब्दों में इसी दषा को हम उपभोगक्तावाद कहते हैं।
Key Words
उपभोक्ता, बाजारवाद, राष्ट्रीय संस्कृति, सृजनशीलता, सांस्कृतिक राष्ट्र, आर्थिक प्रतियोगिता, भौतिक संस्कृति
Cite This Article
"उपभोक्तावाद, आर्थिक विकास एक सामाजिक समस्या", International Journal of Emerging Technologies and Innovative Research (www.jetir.org), ISSN:2349-5162, Vol.3, Issue 12, page no.794-803, December-2016, Available :
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ISSN
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"उपभोक्तावाद, आर्थिक विकास एक सामाजिक समस्या", International Journal of Emerging Technologies and Innovative Research (www.jetir.org | UGC and issn Approved), ISSN:2349-5162, Vol.3, Issue 12, page no. pp794-803, December-2016, Available at : http://www.jetir.org/papers/JETIR1701962.pdf
Publication Details
Published Paper ID: JETIR1701962
Registration ID: 516199
Published In: Volume 3 | Issue 12 | Year December-2016
DOI (Digital Object Identifier):
Page No: 794-803
Country: -, -, India .
Area: Other
ISSN Number: 2349-5162
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