Abstract
अंधायुग वर्तमान राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश की रचना है, क्षयग्रस्तता, मूल्यांधता, मर्यादाहीनता, स्वार्थपरता, सत्तालोलुपता, चरित्रहीनता, बर्बरता, संषय और कुण्ठाग्रस्तता चाहे महाभारत काल की हो, चाहे प्रथम या द्वितीय विश्वयुद्ध की या राश्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950-51 के आस-पास की हो, कोई अन्तर नहीं पड़ता। किसी भी देषकाल में स्थितियों, मनोवृत्तियों और आत्माओं की विकृति तथा दिग्भ्रम, मदांधता एवं विनाष ही ‘अंधायुग’ के जनक बनते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर हमने कम त्रासदी नहीं झेली। वह समय युद्ध, हिंसा, प्रतिहिंसा, विभाजन, त्याग, बलिदान, संघर्ष, अमानवीय कृत्य, चरित्रहीनता और पाशविकता का ही व्यापक परिदृश्य था। जैसाकि लिखा है कि लम्बे संघर्ष, बलिदान और त्याग के बाद हमने स्वतंत्रता पाई थी, लेकिन उसके साथ ही हमें विभाजन का अभिशाप भी मिला था। संघर्ष के समाप्त होते ही सत्ता और भोग का युग आया। आशाएँ और कल्पनाएँ निराधार सिद्ध हुई। भव्यता के प्रभामण्डल निस्तेज पड़ने लगे और नायकों तथा परिस्थतियों में अन्तर्निहित असंगतियाँ, स्वार्थलिप्सा, मर्यादाहीनता, अविवेक और खोखलापन स्पश्ट दिखने लगा। कल के चांद और सूरज आज पांव में चुभने वाले कांच के टुकड़े बन गए। अन्धायुग’ हमारी मर्यादा-खण्डन, विवेकान्धता, मूल्यहीनता से उपजा है। हम ऐसी अर्थहीन दिशाओं में जा रहे है जो हमारी महिमा को खण्डित कर देगी, जहाँ हमारे सब स्वप्न इतिहास के अंधेरों में खो जायेंगे, किन्तु वैयक्तिक स्वार्थों में अंधी हुई हमारी आँखों में और घोशित महानताओं से अभिभूत हमारे कानों ने न उन अंधेरों को देखा और न उनको पग-आहट को सुना। परिणति से अनभिज्ञ होते हुए भी हम मर्यादाओं को तोड़ते चले गये। इन मर्यादाओं को तोड़ने वाला, आत्मदानी पद्धतियों को भंग करने वाला कोई एक व्यक्ति नहीं, वरन् सारा समाज है।