Abstract
‘भक्ति शब्द भज् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है-"भजना"। भगवान को प्राप्त करने के साधनों में कर्म, ज्ञान, योग, और भक्ति मार्ग की गणना होती है। सहज साध्य होने के कारण आचार्यों ने भक्तिमार्ग को प्रमुखता दी है - अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ। भक्तिमार्ग का प्रमुख समप्रदाय भागवत धर्म है....भागवत धर्म अपनी प्रथमावस्था में ऐकेश्वरी भक्ति का प्रतिपादक था क्योंकि पूर्व-सांख्य तथा योगमत प्रचलित थे। जिसका प्रभाव उस पर स्वाभवत: पड़ा था। द्वितीया अवस्था में ब्राह्मण धर्म के प्राबल्य के कारण इसमें बहुदेवोपासना का समावेश हो गया। ईसा की आठवीं शताब्दी मे शांकर मत(अद्वैतवाद) के प्रसारण में भागवत धर्म की गति कुंठित कर दी। परन्तु शंकराचार्य के पश्चात दक्षिण में रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य ने इसका पुनरुद्धार किया।’1 १२वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य ने विशिष्टा-अद्वैतवादी मत के आधार पर श्री संप्रदाय की स्थापना की। इन्हीं के शिष्य हुए रामानन्द, जिन्हें भक्ति को दक्षिण से उत्तर लाने का श्रेय प्राप्त है। रामानंद के अनुयायियों में सगुण भक्त और निर्गुण संत हुए। इन्हीं के बारह शिष्यों में नरहर्यानंद हुए।2 नरहर्यानंद को तुलसीदास का गुरु बताया जाता है।3 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते है कि -"रामानंद जी की शिष्यपरंपरा के अनुसार देखें तो भी तुलसीदास के गुरु का नाम नरहर्यानंद और नरहर्यानंद के गुरु का नाम अनंतानंद (प्रिय शिष्य अनंतानंद हते। नरहर्यानंद सुनाम छते) असंगत ठहरता है।"4 किन्तु जब तुलसीदास दास्य भाव की भक्ति करते है तो "इस विषय में तुलसीदास श्री रामानुजाचार्य के अधिक नजदीक आते है।"5 अत: इतना तो अवश्य समझा जा सकता है कि गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति पर रामानंद का प्रभाव अवश्य रहा होगा।
गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति पर वेदांत का प्रभाव दिखाई देता है। वे विनय पत्रिका में कहते हैं कि – ‘कोई वाचनिक ज्ञान में कितना ही कुशल क्यों न हो, परंतु यह संसार सागर
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1. धीरेन्द्र वर्मा;-हिंदी साहित्य कोश , पृष्ठ - 441
2. रामानन्द जी के बारह शिष्य कहे गए हैं- अनंतानंद, सुखानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद, भावानंद, पीपा, कबीर, सेन, धन्ना, रैदास, पद्मावती और सुरसरी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल;- हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ - 92
3. बच्चन सिंह;- हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ - 140
4. आचार्य रामचंद्र शुक्ल;- हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ - 94
5. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ;- हिंदी साहित्य की भूमिका, पृष्ठ - 83
को पार नहीं कर सकता।’6 क्योंकि जीव भगवान से अलग होकर माया के कारण भ्रमवश शरीर को अपना (स्थायी) मान लेता है और दु:ख को प्राप्त होता है -
जिय जब ते हरि ते बिलगान्यो। तब ते देह गेह निज जान्यो।।
माया बस स्वरूप बिसरायो। तेहि भ्रम ते दारून दुख पायो।। विनय पत्रिका,पद-136
इसीलिए रामविलास शर्मा ने तुलसी की भक्ति के विषय मे कहा:- “तुलसी में उपनिषदों से आती हुई अद्वैतवाद की धारा है, दक्षिण भारत से नवीन भक्ति आंदोलन के साथ आती हुई विशिष्ट अद्वैतवाद की धारा भी है। उसमें आनंद के अतिरेक की अनुभूति रहस्यवादी कवियों जैसी है।’’7 परंतु आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस विषय पर भिन्न मत रखते हैं। वे कहते हैं कि:- ‘‘इस संबंध मे इतना कह देना आवश्यक है कि तुलसीदास भक्तिमार्गी थे अत: उनकी वाणी में भक्ति के ग़ूढ रहस्यों को ढूढ़ना ही अधिक फलदायक होगा, ज्ञानमार्गी के सिद्धान्तों को ढूँढना नहीं।’’8 तुलसीदास स्वयम् विनय पत्रिका में स्वीकारते हैं कि- कोई ईश्वर की रचना(जगत) को मिथ्या कहता है, किसी के मत में यह सत्य है और किसी के मत मे दोनों का समिश्रण है। ये तीनों ही मत भ्रम उत्पन्न करने वाले हैं-